राखी बंधाई
महादेवी वर्मा को जब ज्ञानपीठ पुरस्कार
से सम्मानित किया गया था, तो एक साक्षात्कार के दौरान उनसे पूछा गया था,
'आप इस एक लाख रुपये का क्या करेंगी?
कहने लगी, 'न तो मैं अब कोई क़ीमती
साड़ियाँ पहनती हूँ, न कोई सिंगार-पटार कर सकती हूँ, ये लाख रुपये पहले
मिल गए होते तो भाई को चिकित्सा और दवा के अभाव में यूँ न जाने देती,
कहते-कहते उनका दिल भर आया। कौन था उनका वो 'भाई'? हिंदी के युग-प्रवर्तक
औघड़-फक्कड़-महाकवि पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी के
मुंहबोले भाई थे।
एक बार वे रक्षा-बंधन के दिन सुबह-सुबह
जा पहुँचे अपनी लाडली बहन के घर और रिक्शा रुकवाकर चिल्लाकर द्वार से
बोले, 'दीदी, जरा बारह रुपये तो लेकर आना।' महादेवी रुपये तो तत्काल ले
आई, पर पूछा, 'यह तो बताओ भैय्या, यह सुबह-सुबह आज बारह रुपये की क्या
जरूरत आन पड़ी?हालाँकि, 'दीदी' जानती थी कि उनका यह
दानवीर भाई रोजाना ही किसी न किसी को अपना सर्वस्व दान कर आ जाता है, पर आज
तो रक्षा-बंधन है, आज क्यों?
निरालाजी
सरलता से बोले, "ये दुई रुपया तो इस रिक्शा वाले के लिए और दस रुपये
तुम्हें देना है। आज राखी है ना! तुम्हें भी तो राखी बँधवाई के पैसे देने
होंगे।"
ऐसे थे फक्कड़ निराला और ऐसी थी उनकी वह स्नेहमयी 'दीदी'।
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